तू भी नाराज़ बहुत है मुझ से
ज़िंदगी तुझ से ख़फ़ा हूँ मैं भी
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एक बरस और बीत गया
मुसाफ़िरों के लिए साज़गार थोड़ी है
फ़सील-ए-शब पे तारों ने लिखा क्या
सर-ए-अफ़्लाक बिछा चाहती है
मिरी उरूज की लिक्खी थी दास्ताँ जिस में
फिर वही शब वही सितारा है
हवा के साथ यारी हो गई है
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है