रोज़ ये ख़्वाब डराता है मुझे
कोई साया लिए जाता है मुझे
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देखना चाहता हूँ गुम हो कर
हमारे दरमियाँ जो उठ रही थी
हाथ पर हाथ रख के क्यूँ बैठूँ
ज़िंदगी की हँसी उड़ाती हुई
रफ़्ता रफ़्ता क़ुबूल होंगे उसे
ऐसी प्यास और ऐसा सब्र
इश्क़ बीनाई बढ़ा देता है
दश्त की ख़ाक भी छानी है
हाँ वफ़ाओं का मेरी ध्यान भी था
कोई उस के बराबर हो गया है
उसे छुआ ही नहीं जो मिरी किताब में था
अज़ल से बंद दरवाज़ा खुला तो