इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
और फिर तमाम उम्र किसी के नहीं हुए
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मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
दिलों पे दर्द का इम्कान भी ज़ियादा नहीं
तमाम इश्क़ की मोहलत है इस आँखों में
सफीर-ए-इश्क़ हमें अब तो हम सफ़र कर लो
उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें