मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
फिर भी ज़ियादा तुम से गुज़ारा गया मुझे
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दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
हमीं ने हश्र उठा रक्खा है बिछड़ने पर
तमाम इश्क़ की मोहलत है इस आँखों में
उसे तो दौलत-ए-दुनिया भी कम भी पाने को
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए
जुनूँ के बाब में अब के ये राएगानी हो
अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को