मुझ से कब उस को मोहब्बत थी मगर मेरे बा'द
उस ने जिस शख़्स को चाहा वो मिरे जैसा था
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सफीर-ए-इश्क़ हमें अब तो हम सफ़र कर लो
उसे तो दौलत-ए-दुनिया भी कम भी पाने को
उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से
कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
बदन में आग है रोग़न मिरे ख़याल में है
इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें