सफीर-ए-इश्क़ हमें अब तो हम सफ़र कर लो
हमारे पास तो सामान भी ज़ियादा नहीं
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जुनूँ के बाब में अब के ये राएगानी हो
इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से
बदन में आग है रोग़न मिरे ख़याल में है
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
इक रोज़ खेल खेल में हम उस के हो गए
इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें
अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे
फ़र्ज़-ए-सुपुर्दगी में तक़ाज़े नहीं हुए
वो एक हाथ बढ़ाएगा तुझ को पा लेगा
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे