वो एक हाथ बढ़ाएगा तुझ को पा लेगा
सो देख सब्र का एलान भी ज़ियादा नहीं
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उस हिज्र पे तोहमत कि जिसे वस्ल की ज़िद हो
इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
इस से पहले कि ये आज़ार गवारा कर लें
तमाम इश्क़ की मोहलत है इस आँखों में
मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
हमीं ने हश्र उठा रक्खा है बिछड़ने पर