इक दिन तिरी गली में मुझे ले गई हवा
और फिर तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही
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हर मुलाक़ात पे सीने से लगाने वाले
बचा के आँख बिछड़ जाएँ उस से चुपके से
अब के मसरूफ़ियत-ए-इश्क़ बहुत है हम को
मैं तो शब-ए-फ़िराक़ था तुम एक उम्र थी
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ पे वारा गया मुझे
दिल भी अजीब ख़ाना-ए-वहदत-पसंद था
वक़्त की ताक़ पे दोनों की सजाई हुई रात
इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे
वो एक हाथ बढ़ाएगा तुझ को पा लेगा
जल्द आएँ जिन्हें सीने से लगाना है मुझे
कुछ इस लिए भी तिरी आरज़ू नहीं है मुझे