शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है
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नहीं कि अपना ज़माना भी तो नहीं आया
फूल ख़ुद अपने हुस्न में गुम है
कहाँ क़तरे की ग़म-ख़्वारी करे है
क्या दुख है समुंदर को बता भी नहीं सकता
तमाम उम्र बड़े सख़्त इम्तिहान में था
जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटाएगा
वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ
आते आते मिरा नाम सा रह गया
मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह
'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़
ज़िंदगी तुझ पे अब इल्ज़ाम कोई क्या रक्खे