कल साथ था कोई तो दर ओ बाम थे रौशन
तन्हा हूँ 'वसीम' आज तो घर काट रहा है
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लगता है जुदा सब से किरदार 'वसीम' उस का
जो शख़्स मिरा दस्त-ए-हुनर काट रहा है
कोई दस्तक कोई आहट न सदा है कोई
लुत्फ़ ये है कि उसी शख़्स के मम्नून हैं हम
ऐ भँवर तेरी तरह बेबाक हो जाएँगे हम
मफ़रूर कभी ख़ुद पर शर्मिंदा नज़र आए
हम-सफ़र तू ने परों को जो मिरे काटा है
शाख़ से कट कर अलग होने का हम को ग़म नहीं