मैं आज कल के तसव्वुर से शाद-काम तो हूँ
ये और बात कि दो पल की ज़िंदगानी है
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न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए
बाद-ए-नफ़रत फिर मोहब्बत को ज़बाँ दरकार है
धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
चंद घंटे शोर ओ ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
मुझे भी ख़ुद न था एहसास अपने होने का
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से 'आमिर'