पढ़ चुके हैं निसाब-ए-तंहाई
अब लिखेंगे किताब-ए-तंहाई
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चाह थी मेहर थी मोहब्बत थी
कमाल-ए-शौक़-ए-सफ़र भी उधर ही जाता है
तअल्लुक़ उस से अगरचे मिरा ख़राब रहा
ऐसा भी नहीं दर्द ने वहशत नहीं की है
लबों से आश्नाई दे रहा है
समझ सका न उसे मैं क़ुसूर मेरा है
हक़ीक़तों से मफ़र चाही थी 'यशब' मैं ने
दर्द की लहर थी गुज़र भी गई
ख़्वाब ता'बीर में बदलता है
तर्क उल्फ़त में भी उस ने ये रिवायत रक्खी
वो जो एक चेहरा दमक रहा है जमाल से