ज़हर है मेरे रग-ओ-पै में मोहब्बत शायद
अपने ही डंक से बिच्छू की तरह मर जाऊँ
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सवाली
जिस का बदन है ख़ुश्बू जैसा जिस की चाल सबा सी है
है गुलू-गीर बहुत रात की पहनाई भी
आ मिरे चाँद रात सूनी है
तामीर-ए-ज़िंदगी को नुमायाँ किया गया
बे-तलब एक क़दम घर से न बाहर जाऊँ
दूर हो कर भी सुनीं तुम ने हिकायात-ए-वफ़ा
क्या ढूँडने आए हो नज़र में
पुकारता हूँ कि तुम हासिल-ए-तमन्ना हो
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