समझेंगे न अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक
कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे
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वाँ तबीअत दम-ए-तक़रीर बिगड़ जाती है
वो जो कुछ कुछ निगह मिलाने लगे
हम और चाह ग़ैर की अल्लाह से डरो
अभी से आ गईं नाम-ए-ख़ुदा हैं शोख़ियाँ क्या-क्या
तल्ख़ शिकवे लब-ए-शीरीं से मज़ा देते हैं
गुल हुआ ये किस की हस्ती का चराग़
सख़्त दुश्वार है पहलू में बचाना दिल का
किस मुँह से हाथ उठाएँ फ़लक की तरफ़ 'ज़हीर'
रहता तो है उस बज़्म में चर्चा मिरे दिल का
लुत्फ़ जब आए शिकवा-संजी का
उन को हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़ सुना कर उट्ठे
नसीहत-गरो दिल लगाया तो होता