सर पे एहसान रहा बे-सर-ओ-सामानी का
ख़ार-ए-सहरा से न उलझा कभी दामन अपना
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गेसू से अंबरी है सबा और सबा से हम
क्यूँ किसी से वफ़ा करे कोई
रंज राहत-असर न हो जाए
इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग
इश्क़ है इश्क़ तो इक रोज़ तमाशा होगा
कुछ शिकवे-गिले होते कुछ तैश सिवा होता
जहाँ में कौन कह सकता है तुम को बेवफ़ा तुम हो
रहता तो है उस बज़्म में चर्चा मिरे दिल का
वो जितने दूर खिंचते हैं तअल्लुक़ और बढ़ता है
तलाफ़ी वफ़ा की जफ़ा चाहता हूँ
चौंक पड़ता हूँ ख़ुशी से जो वो आ जाते हैं
रंग जमने न दिया बात को चलने न दिया