ज़हीर काश्मीरी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़हीर काश्मीरी (page 2)
नाम | ज़हीर काश्मीरी |
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अंग्रेज़ी नाम | Zaheer Kashmiri |
जन्म की तारीख | 1919 |
मौत की तिथि | 1994 |
जन्म स्थान | Lahore |
वो महफ़िलें वो मिस्र के बाज़ार क्या हुए
वो इक झलक दिखा के जिधर से निकल गया
वो अक्सर बातों बातों में अग़्यार से पूछा करते हैं
तू अगर ग़ैर है नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ क्यूँ है
तिरी चश्म-ए-तरब को देखना पड़ता है पुर-नम भी
तलब आसूदगी की अर्सा-ए-दुनिया में रखते हैं
शब-ए-महताब भी अपनी भरी-बरसात भी अपनी
शब-ए-ग़म याद उन की आ रही है
परवाना जल के साहब-ए-किरदार बन गया
मुज़्महिल होने पे भी ख़ुद को जवाँ रखते हैं हम
मिरा ही बन के वो बुत मुझ से आश्ना न हुआ
मौसम बदला रुत गदराई अहल-ए-जुनूँ बेबाक हुए
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
मरना अज़ाब था कभी जीना अज़ाब था
मैं हूँ वहशत में गुम मैं तेरी दुनिया में नहीं रहता
लौह-ए-मज़ार देख के जी दंग रह गया
कुछ बस न चला जज़्बा-ए-ख़ुद-काम के आगे
किस को मिली तस्कीन-ए-साहिल किस ने सर मंजधार किया
इश्क़ जब तक न आस-पास रहा
इश्क़ इक हिकायत है सरफ़रोश दुनिया की
इस दौर-ए-आफ़ियत में ये क्या हो गया हमें
हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है
हवा-ए-हिज्र चली दिल की रेगज़ारों में
हर रोज़ ही इमरोज़ को फ़र्दा न करोगे
हमराह लुत्फ़-ए-चश्म-ए-गुरेज़ाँ भी आएगी
हैं बज़्म-ए-गुल में बपा नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या
फ़िराक़-ए-यार के लम्हे गुज़र ही जाएँगे
फ़र्ज़ बरसों की इबादत का अदा हो जैसे
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा
इक शख़्स रात बंद-ए-क़बा खोलता रहा