उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
रोकते किस तरह वो शख़्स हमारा था कहाँ
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कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को
इतनी शिद्दत से गले मुझ को लगाया हुआ है
इश्क़ जब तुझ से हुआ ज़ेहन के जुगनू जागे
इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है
सफ़र मुझ पर अजब बरपा रही है
ज़िंदगी से थकी थकी हो क्या
जिस तरह प्यासा कोई आब-ए-रवाँ तक पहुँचे
दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है
तक रहा है तू आसमान में क्या
जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है
बड़े सलीक़े से तोड़ा मिरा यक़ीन उस ने