अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
ख़ुद को इतना ग़म-ए-जानाँ से शनासा न करो
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सम्तों का ज़वाल
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर
सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
बे-कराँ
कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
बशारत पानी की
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
पूछ न हम से कैसे तुझ तक नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ लाए हम
मुझे तुम शोहरतों के दरमियाँ गुमनाम लिख देना
नज़्म