हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी
अगले वक़्तों की सी शराफ़त ढूँड रही है शहरों में
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औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर
कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
फिर दिल को रोज़ ओ शब की वही ईद चाहिए
नए घरों में न रौज़न थे और न मेहराबें
रात फिर दर्द बनी
जो न इक बार भी चलते हुए मुड़ के देखें
हर क़दम सैल-ए-हवादिस से बचाया है मुझे
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
नज़्म