एक मंज़र में लिपटे बदन के सिवा
सर्द रातों में कुछ और दिखता नहीं
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हमें सफ़र की अज़िय्यत से फिर गुज़रना है
घर की हद में सहरा है
अजब रंग आँखों में आने लगे
नजात
आँख खुलते ही बस्तियाँ ताराज
ख़बर तो दूर अमीन-ए-ख़बर नहीं आए
है इंतिज़ार मुझे जंग ख़त्म होने का
आँगन में छोड़ आए थे जो ग़ार देख लें
घर में और बहुत कुछ था
दूर तक फैला समुंदर मुझ पे साहिल हो गया
ताबीर इस की क्या है धुआँ देखता हूँ मैं
सफ़र तो पहले भी कितने किए मगर इस बार