मैं अपने आप में गहरा उतर गया शायद
मिरे सफ़र से अलग हो गई रवानी मिरी
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मह-रुख़ जो घरों से कभी बाहर निकल आए
कुंज-ए-ग़ज़ल न क़ैस का वीराना चाहिए
ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता
दिल दुखों के हिसार में आया
यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं
निहाल-ए-दर्द ये दिन तुझ पे क्यूँ उतरता नहीं
मकाँ-भर हम को वीरानी बहुत है
दश्त-ए-हैरत में सबील-ए-तिश्नगी बन जाइए
झिलमिल से क्या रब्त निकालें कश्ती की तक़दीरों का
घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा
नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है
साँस के शोर को झंकार न समझा जाए