मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह
ख़ुद में उतर के पार उतर जाना चाहिए
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बोलता हूँ तो मिरे होंट झुलस जाते हैं
वो कौन है जो पस-ए-चश्म-ए-तर नहीं आता
कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है
फ़क़त माल-ओ-ज़र-ए-दीवार-ओ-दर अच्छा नहीं लगता
मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
अजीब तौर की है अब के सरगिरानी मिरी
तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
मैं हूँ इस शहर में ताख़ीर से आया हुआ शख़्स
रातें गुज़ारने को तिरी रहगुज़र के साथ
हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस
झोंके के साथ छत गई दस्तक के साथ दर गया
टूट जाने में खिलौनों की तरह होता है