पस-मंज़र में 'फ़ीड' हुए जाते हैं इंसानी किरदार
फ़ोकस में रफ़्ता रफ़्ता शैतान उभरता आता है
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दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द
नेक गुज़रे मिरी शब सिद्क़-ए-बदन से तेरे
मैं बढ़ते बढ़ते किसी रोज़ तुझ को छू लेता
मैं ने अपनी रूह को अपने तन से अलग कर रक्खा है
बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ न खुल सका
'सादेम'
दम-ए-वापसीं
शिकस्त-ए-व'अदा की महफ़िल अजीब थी तेरी
जीतने मारका-ए-दिल वो लगातार गया
दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
बद-सोहबतों को छोड़ शरीफ़ों के साथ घूम
मरने की पुख़्ता-ख़याली में जीने की ख़ामी रहने दो