भर लाए हैं हम आँख में रखने को मुक़ाबिल
इक ख़्वाब-ए-तमन्ना तिरी ग़फ़लत के बराबर
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यूँ ही निमटा दिया है जिस को तू ने
ये भी तो कमाल हो गया है
तू कहीं बैठ और हुक्म चला
पस-मंज़र की आवाज़
और क्या रह गया है होने को
ज़मीं नहीं ये मिरी आसमाँ नहीं मेरा
गुंजाइश-ए-अफ़्सोस निकल आती है हर रोज़
मिट्टी थी किस जगह की
कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है
गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था
हमारे दुखों का इलाज कहाँ है
हम कि इक भेस लिए फिरते हैं