यूँ ही निमटा दिया है जिस को तू ने
वो क़िस्सा मुख़्तसर ऐसा नहीं था
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आँखें तरस गई हैं
ये भी तो कमाल हो गया है
कुछ काम नहीं है यहाँ वहशत के बराबर
कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है
राह दुश्वार भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
ज़मीं नहीं ये मिरी आसमाँ नहीं मेरा
जो भी यकजा है बिखरता नज़र आता है मुझे
पस-मंज़र की आवाज़
और क्या रह गया है होने को
मिट्टी से एक मुकालिमा
ये ऊँट और किसी के हैं दश्त मेरा है
गो फ़रामोशी की तकमील हुआ चाहती है