वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
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हम बहर-ए-हाल दिल ओ जाँ से तुम्हारे होते
कोई पत्थर कोई गुहर क्यूँ है
कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
वो जो तर्क-ए-रब्त का अहद था कहीं टूटने तो नहीं लगा
जो मह ओ साल गुज़ारे हैं बिछड़ कर हम ने
आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर
क्यूँ मिरे लब पे वफ़ाओं का सवाल आ जाए
तेरे लिए चले थे हम तेरे लिए ठहर गए
ग़म है वहीं प ग़म का सहारा गुज़र गया
इक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा
हुआ है जो सदा उस को नसीबों का लिखा समझा