वो आँखों पर पट्टी बाँधे फिरती है
दीवारों का चूना चाटती रहती है
ख़ामोशी के सहराओं में उस के घर
मरे हुए सूरज हैं उस की छाती पर
उस के बदन को छू कर लम्हे साल बने
साल कई सदियों में पूरे होते हैं
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आधों की तरफ़ से कभी पौनों की तरफ़ से
हज का सफ़र है इस में कोई साथ भी तो हो
गोल कमरे को सजाता हूँ
सातवीं पिसली में पीली चाँदनी
खिड़की ने आँखें खोली
वुसअत-ए-दामन-ए-सहरा देखूँ
आशिक़ थे शहर में जो पुराने शराब के
बुध
ऐनक के शीशे पर
उँगली से उस के जिस्म पे लिक्खा उसी का नाम
मुझे पसंद नहीं ऐसे कारोबार में हूँ
ऐसे डरे हुए हैं ज़माने की चाल से