नश्शा सा डोलता है तिरे अंग अंग पर
जैसे अभी भिगो के निकाला हो जाम से
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दरवाज़ा बंद देख के मेरे मकान का
सियाह चाँद के टुकड़ों को मैं चबा जाऊँ
कब तक पड़े रहोगे हवाओं के हाथ में
वक़्त की पीठ पर
सफ़ेद रात से मंसूब है लहू का ज़वाल
वो जान-ए-नौ-बहार जिधर से गुज़र गया
यादों ने उसे तोड़ दिया मार के पत्थर
वक़्त की रेत पे
टूटी लज़्ज़त की ख़ुशबू
गोल कमरे को सजाता हूँ
एक मंज़र