तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
हम भी सादा हैं इसी चाल में आ जाते हैं
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ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया
कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
हमारे ख़ून के प्यासे पशेमानी से मर जाएँ