मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
मगर जो बीच में कम-बख़्त शाइरी है ना
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आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
इतनी सारी यादों के होते भी जब दिल में
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती
डुबो रहा है मुझे डूबने का ख़ौफ़ अब तक
अब जो पत्थर है आदमी था कभी
राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
हमारे ख़ून के प्यासे पशेमानी से मर जाएँ