शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
तू सच बता ये मुलाक़ात आख़री है ना
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ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया
लोगों ने आराम किया और छुट्टी पूरी की
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
इसी लिए हमें एहसास-ए-जुर्म है शायद
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
हमारा दिल ज़रा उकता गया था घर में रह रह कर
वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता