जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
शाम ढले पेड़ों पर मर्सिया-ख़्वानी होती है
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लोगों ने आराम किया और छुट्टी पूरी की
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है
ज़रा ये दूसरा मिस्रा दुरुस्त फ़रमाएँ
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
इसी लिए हमें एहसास-ए-जुर्म है शायद
किसी ने ख़्वाब में आकर मुझे ये हुक्म दिया
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता