ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
हमें ब-वक़्त-ए-ज़रूरत निकालिए साहब
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तू रोज़ जिस के तजस्सुस में आ रहा है यहाँ
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
तू मुझे तंग न कर ए दिल-ए-आवारा-मिज़ाज
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
तभी तो मैं मोहब्बत का हवालाती नहीं होता
ये भी ख़ुद को हौसला देने का हीला है कि मैं
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
किसी ने ख़्वाब में आकर मुझे ये हुक्म दिया