तू रोज़ जिस के तजस्सुस में आ रहा है यहाँ
हज़ार बार बताया है वो नहीं हूँ में
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इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
साथियो अब मुझे रस्ते में उतरना होगा
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
इसी लिए हमें एहसास-ए-जुर्म है शायद
सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया