बना रक्खी हैं दीवारों पे तस्वीरें परिंदों की
वगर्ना हम तो अपने घर की वीरानी से मर जाएँ
Javed Akhtar
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ये नुक्ता इक क़िस्सा-गो ने मुझ को समझाया
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त
दालान में सब्ज़ा है न तालाब में पानी
ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
हमारे साँस भी ले कर न बच सके अफ़ज़ल
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
तू मुझे तंग न कर ए दिल-ए-आवारा-मिज़ाज
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
सज़ा-ए-मौत पे फ़रियाद से तो बेहतर है
वो जो इक शख़्स वहाँ है वो यहाँ कैसे हो