छोड़ कर मुझ को तिरे सहन मैं जा बैठा है
पड़ गई जैसे तिरे साया-ए-दीवार मैं जान
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जब इक सराब में प्यासों को प्यास उतारती है
राह भोला हूँ मगर ये मिरी ख़ामी तो नहीं
तू रोज़ जिस के तजस्सुस में आ रहा है यहाँ
कल अपने शहर की बस में सवार होते हुए
इतनी सारी यादों के होते भी जब दिल में
तो फिर वो इश्क़ ये नक़्द-ओ-नज़र बराए-फ़रोख़्त
जाने क्या क्या ज़ुल्म परिंदे देख के आते हैं
मैं ख़ुद भी यार तुझे भूलने के हक़ में हूँ
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
उस लम्हे तिश्ना-लब रेत भी पानी होती है