अब जो पत्थर है आदमी था कभी
इस को कहते हैं इंतिज़ार मियाँ
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ये कह दिया है मिरे आँसुओं ने तंग आ कर
ये जो कुछ लोग ख़यालों में रहा करते हैं
आज ही फ़ुर्सत से कल का मसअला छेड़ूँगा मैं
परिंदे लड़ ही पड़े जाएदाद पर आख़िर
ये मोहब्बत के महल ता'मीर करना छोड़ दे
आदमी ख़्वार भी होता है नहीं भी होता
मुझे रोना नहीं आवाज़ भी भारी नहीं करनी
तिरी मसनद पे कोई और नहीं आ सकता
इक वडेरा कुछ मवेशी ले के बैठा है यहाँ
शिकस्त-ए-ज़िंदगी वैसे भी मौत ही है ना
तू भी सादा है कभी चाल बदलता ही नहीं
भाव ताओ में कमी बेशी नहीं हो सकती