अपनी बुलंदियों से गिरूँ भी तो किस तरह
फैली हुई फ़ज़ाओं में बिखरा हुआ हूँ मैं
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अपने माहौल से कुछ यूँ भी तो घबराए न थे
मुझे बतलाईए अब कौन सी जीने की सूरत है
मिटते हुए नुक़ूश-ए-वफ़ा को उभारिए
ये भी शायद ज़िंदगी की इक अदा है दोस्तो
काँच की ज़ंजीर टूटी तो सदा भी आएगी
ज़िंदगी इतनी परेशाँ है ये सोचा भी न था
चाँद में कैसे नज़र आए तिरी सूरत मुझे
हर चंद ज़िंदगी का सफ़र मुश्किलों में है
गिर पड़ा तू आख़िरी ज़ीने को छू कर किस लिए
मैं फ़क़त इस जुर्म में दुनिया में रुस्वा हो गया
एक पैकर यूँ चमक उट्ठा है मेरे ध्यान में