अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के
अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो
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दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है
अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे
था अबस तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा यूँ भी
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
रात क्या सोए कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर ख़बर
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
दीवार-ए-गिर्या
सो देख कर तिरे रुख़्सार ओ लब यक़ीं आया