अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
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उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है
ज़ेर-ए-लब
सिलवटें हैं मिरे चेहरे पे तो हैरत क्यूँ है
मैं ख़ुद को भूल चुका था मगर जहाँ वाले
तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता
ग़नीम से भी अदावत में हद नहीं माँगी
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
जाने किस आलम में तू बिछड़ा कि है तेरे बग़ैर
हँसी-ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है
इस से पहले कि बे-वफ़ा हो जाएँ
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं