उम्र भर कौन निभाता है तअल्लुक़ इतना
ऐ मिरी जान के दुश्मन तुझे अल्लाह रक्खे
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मयूरका
सारा शहर बिलकता है
तू इतनी दिल-ज़दा तो न थी ऐ शब-ए-फ़िराक़
हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं
मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का
तो बेहतर है यही
भरी बहार में इक शाख़ पर खिला है गुलाब
चुप-चाप अपनी आग में जलते रहो 'फ़राज़'
पेच रखते हो बहुत साहिबो दस्तार के बीच
वो अपने ज़ोम में था बे-ख़बर रहा मुझ से