अब और क्या किसी से मरासिम बढ़ाएँ हम
ये भी बहुत है तुझ को अगर भूल जाएँ हम
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हम को उस शहर में तामीर का सौदा है जहाँ
हच-हाईकर
ले उड़ा फिर कोई ख़याल हमें
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू
लो फिर तिरे लबों पे उसी बेवफ़ा का ज़िक्र
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
अब उसे लोग समझते हैं गिरफ़्तार मिरा
ज़ेर-ए-लब
मेरी ख़ातिर न सही अपनी अना की ख़ातिर
इस क़दर मुसलसल थीं शिद्दतें जुदाई की
मुंतज़िर किस का हूँ टूटी हुई दहलीज़ पे मैं