ग़ज़ल फ़ज़ा भी ढूँडती है अपने ख़ास रंग की
हमारा मसअला फ़क़त क़लम दवात ही नहीं
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भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें
शहर-ए-हवा में जलते रहना अंदेशों की चौखट पर
फूल थे रंग थे लम्हों की सबाहत हम थे
ढूँडते क्या हो इन आँखों में कहानी मेरी
पहले ग़म-ए-फ़ुर्क़त के ये तेवर तो नहीं थे
दिल हैं यूँ मुज़्तरिब मकानों में
अजब नशा है तिरे क़ुर्ब में कि जी चाहे
ज़ख़्मों का दो-शाला पहना धूप को सर पर तान लिया
जो मिरी शबों के चराग़ थे जो मिरी उमीद के बाग़ थे
तिरे जैसा मेरा भी हाल था न सुकून था न क़रार था
ये बरसों का तअल्लुक़ तोड़ देना चाहते हैं हम
जाने किस चाह के किस प्यार के गुन गाते हो