इक याद सो रहे को उठाती है आज भी

इक याद सो रहे को उठाती है आज भी

ख़ुद जागती है मुझ को जगाती है आज भी

ये कैसी मुतरिबा है जो छुप कर जहान से

धीमे सुरों में रात को गाती है आज भी

सदियाँ गुज़र गईं जिसे डूबे हुए यहाँ

उस को सदा-ए-शौक़ बुलाती है आज भी

जिस शहर-ए-आरज़ू के निशानात मिट गए

दिल की निगाह फिर वहीं जाती है आज भी

होंटों पे बार बार ज़बाँ फेरता था जो

उस क़ाफ़िले की प्यास रुलाती है आज भी

पर्बत की चोटियों पे वो रोती हुई घटा

किस हादसे पे नीर बहाती है आज भी

बस एक ही बला है मोहब्बत कहें जिसे

वो पानियों में आग लगाती है आज भी

हर रोज़ आ के ख़्वाब में पाज़ेब की सदा

धड़कन हमारे दिल की बढ़ाती है आज भी

'हसरत' कोई तो खो गया उम्र-ए-अज़ीज़ का

जो नंगे पाँव दौड़ती जाती है आज भी

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