अहल-ए-हुनर की आँखों में क्यूँ चुभता रहता हूँ
मैं तो अपनी बे-हुनरी पर नाज़ नहीं करता
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पीछे छूटे साथी मुझ को याद आ जाते हैं
सियाह रात के बदन पे दाग़ बन के रह गए
अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है
इश्क़ में तहज़ीब के हैं और ही कुछ फ़लसफ़े
क्यूँ आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ
अपनी कहानी दिल में छुपा कर रखते हैं
हम को लुत्फ़ आता है अब फ़रेब खाने में
कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
बस एक तिरे ख़्वाब से इंकार नहीं है
तहज़ीब की ज़ंजीर से उलझा रहा मैं भी
चारों तरफ़ हैं शोले हम-साए जल रहे हैं