गुज़िश्ता रुत का अमीं हूँ नए मकान में भी
पुरानी ईंट से तामीर करता रहता हूँ
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जब तक खुली नहीं थी असरार लग रही थी
जाना तो बहुत दूर है महताब से आगे
रात गए अक्सर दिल के वीरानों में
याद करते हो मुझे सूरज निकल जाने के बा'द
तमाम रंग अधूरे लगे तिरे आगे
अब कितनी कार-आमद जंगल में लग रही है
कोई सूरत भी नहीं मिलती किसी सूरत में
मैं जिधर जाऊँ मिरा ख़्वाब नज़र आता है
किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते
हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं