घर जल रहा था सब के लबों पर धुआँ सा था
किस किस पे क्या हुआ था ग़ज़ब बोलने न पाए
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ख़ुश्क आँखों से लहू फूट के रोना इक दिन
लब क्या खुले कि क़ुव्वत-ए-गोयाई छिन गई
बा'द मुद्दत के खुला जौहर-ए-नायाब मिरा
लहू की सूखी हुई झील में उतर कर यूँ
मैं जिस का मुंतज़िर हूँ वो मंज़र पुकार ले
हर मोड़ पे सफ़र था अजब बोलने न पाए
नाज़िल हुआ था शहर में काला अज़ाब एक
मैं फिर रहा हूँ शहर में सड़कों पे ग़ालिबन
सिसकता चीख़ता एहसास था मिरे अंदर
तेरे जमाल की दोशीज़गी की क़ौस-ए-क़ुज़ह