कभी सर पे चढ़े कभी सर से गुज़रे कभी पाँव आन गिरे दरिया
कभी मुझे बहा कर ले जाए कभी मुझ में आन बहे दरिया
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कश्फ़
मैं भरी सड़कों पे भी बे-चाप चलने लग गया
धुँद
कभी जो नूर का मज़हर रहा है
बोसीदा ख़दशात का मलबा दूर कहीं दफ़नाओ
पानी में भी प्यास का इतना ज़हर मिला है
ऐ शाएर! तेरा दर्द बड़ा ऐ शाएर! तेरी सोच बड़ी
किसी पे बार-ए-दिगर भी निगाह कर न सके
फ़रेब-ए-माह-ओ-अंजुम से निकल जाएँ तो अच्छा है
ग़ुबार-ए-नूर है या कहकशाँ है या कुछ और
ज़रा हटे तो वो मेहवर से टूट कर ही रहे