मुत्तहिद हो के उठे ज़ुल्म के क़दमों से अवाम
सारे गुम-गश्ता अज़ीज़ान-ए-जहाँ मिल ही गए
लाख गुलशन में बिछाए थे ख़िज़ाँ ने काँटे
क़दम-ए-बाद-ए-बहार आए तो गुल खिल ही गए
Habib Jalib
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Wasi Shah
Rahat Indori
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1072) Peoples Rate This
तख़्लीक़ पे फ़ितरत की गुज़रता है गुमाँ और
जज़्बा-ए-शौक़ की तकमील नहीं हो सकती
मिरे अज़ीज़ो, मिरे रफ़ीक़ो
परतव से जिस के आलम-ए-इम्काँ बहार है
शाख़-ए-गुल है कि ये तलवार खिंची है यारो
ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
एक ख़्वाब और
निवाला
नग़्मा-ए-ज़ंजीर है और शहर-ए-याराँ इन दिनों
ज़ेहन ओ जज़्बात ओ इशारात ओ किनायात बनी
हर एक ख़ुशी दर्द के दामन में पली है
शिकस्त-ए-शौक़ को तकमील-ए-आरज़ू कहिए