कोई पत्थर का निशाँ रख के जुदा हों हम तुम
जाने ये पेड़ किस आँधी में उखड़ जाएगा
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सदाओं के जंगल में वो ख़ामुशी है
उस का ग़म अपनी तलब छीन के ले जाएगा
बादलों के बीच था मैं बे-सर-ओ-सामाँ न था
बिखर के छूट न जाऊँ तिरी गिरफ़्त से मैं
जुदा किया तो बहुत ही हँसी-ख़ुशी उस ने
ना-शनासी का हमेशा ग़म रहा
एक आवाज़ ने तोड़ी है ख़मोशी मेरी
सफ़र है ज़ेहन का तो कोई रहनुमा ले जा
है ग़म-ए-हिज्र न अब ज़ौक़-ए-तलब कुछ भी नहीं